रास्ते से गुजरते हुए ये अक्सर सोचता हूँ मै
कि कैसे मूक हो ज्यों की त्यों खड़े ये पेड़ हैं
हम मानव द्वारा किये गए समस्त कर्मो को
देख सुनकर जीवित नहीं जड़ हो पड़े ये पेड़ हैं
बरसों से खड़े एक जगह निश्चल और गंभीर
हमारे हर सही गलत कृत्य के ये गवाह हैं
कभी कोई आप्पति ना जताते हुए किसी से
अपनी सघन छाँव में दी सभी को पनाह है
युग बीतती रही व बदलती रही आवोहवा
नहीं बदला अगर तो बस इनकी दिनचर्या
मौसम अनुरूप झड़ते फूलते फलते रहे ये
ऩिरवरत करते रहे हम जीव की परिचर्या
कभी देखा इन्हों ने मासूम नवयुवतियों को
डाली से झूला लगाकर पेंग भर झूमते हुए
और फिर कभी उन्हीं में से किसी परित्यक्त
अभागन को देखा फांसी लगाकर झूलते हुए
देखा इन्हों ने बेफिक्र नौजवानों को निश्चिन्त
अपने तले बैठ ताश की मजलिस लगाते हुए
तो अक्सर बुजुर्गों को सुना आपस में बैठ कर
बेदर्द दुनियाँ से हार निज आपबीती सुनाते हुए
जीवित हैं पेड़ पौधे भी हमारी तरह मगर हम
यह सर्वविदित तथ्य जान कर भी अनजान हैं
क्यूँ नहीं हम मानते इस बात को ह्रदय से बंधू
कि चलती बस इन्हीं के बदौलत हमारी प्राण है
मगर हैरान हूँ मै देखकर इस जहाँ कि कृत्य को
बिना सोचे लगे सब काटने हरी भरी सब वृक्ष को
न जाने क्या रहेगा अवशेष इस धरा पर उस दिन
कमी पर जायेगी इन पेड़ पौधों कि यहाँ जिस दिन
लगाते एक हैं जो पेड़ कोई तो फिर सीना तान कर
कहते हैं बड़े गर्व से वो कि हमने किया है वृक्षरोपण
अरे नादान कभी सोचा कि काट के लाखों पेड़ हमने
मानव और प्रकृति का किस रूप से करते रहे शोषण
तो आओ दोस्तों हम मानकर इस बात को यह ठान लें
कि जहाँ तक बन पड़ेगी निरंतर पेड़ पौधों को बचायेंगे
बाप दादा की जमींदारी तो रही नहीं आज अपनी यहाँ
रास्ते के किनारे ही सही कम से कम एक पेड़ लगायेंगे
राजीव रंजन मिश्र
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