Thursday, March 22, 2012

ममता से भरी आँखे,
वह स्नेह भरा स्पर्श!
दुनिया में अपने आप में,
है प्रेम का उत्कर्ष!
खुद भूखे रहकर,
जो बच्चे को खिलाती!
गिले बिस्तर में लेटकर,
जो बच्चे को सुलाती!
रातों को जागकर,
जो लोरी सुनाती!
मत भूलो मेरेदोस्तों,
वो 'माँ' है कहलाती!
सिने में अपने गम लिये,
हर जख्म सह जाते!
बाजू में अपने दम लिये,
जो हर बोझ उठाते!
बच्चों के वास्ते,
जो पसीना है बहाते!
मत भूलो मेरे दोस्तों,
वो है 'बाप' कहलाते!

पर,बच्चे जब बढ़कर,
अपने औकात में आते!
अपने बच्चों के प्रति,
अपना हर फ़र्ज़ निभाते!
पर याद नहीं रह जाती उन्हें,
कि कुछ और भी हैं नाते!
जिनका न कोई मांग है,
और है भी तो सुने नहीं जाते!
निश्छल हो निःस्वार्थ जीने वाले,
माँ-बाप कभी कुछ भी नहीं पाते!
पर,बेफिक्री से जीने वाले,
भला यह भूल क्यों जाते!
कि वही बच्चे बड़े होकर,
निर्ममता की इतिहास दुहराते!


राजीव रंजन मिश्र
२१.०३.२०१२
नारी अपनेके पाओल,कै रूप आ बानगी में!
देखल कै रूप अहाँ केर,अहि छोट छिन जिन्नगी में!

पहिल रूप माय केर देखल,त्याग आ अटूट स्नेह केर!
भेटल निशिदिन एकहिं टा,मूरत निश्छल नेह केर!!

भेटल दोसर रूप बहिन केर,बिना आस किछु पाबय के!
संग रहथि बा दूर जाय क,सब दिन संबंध निभाबय के!!

फेर ऐली भार्या बनि कै,सदिखन प्रेम-सुधा बरसाबय लेल!
बिना चाह अपना लेल कोनो,घर-संसार चलाबय लेल!!

तकर बाद बेटी बनि ऐली,सुन्न आँगन-द्वारि चहकाबय लेल!
सब रूपे सम्हारि जीवन के,चलि गेली सासुर गमकाबय लेल!!

भेटल आरो रूप जतेक भी,सेहो छल,बस त्याग आर ममता केर!
मुदा नहिं जानि,कतौ नहि देखल,जीवन अधिकार आ समता केर!!

नहि जानि मोन ई खिन्न रहति अछि,देखि आब ई कत्लेआम!
आबु ज्ञानी भ सोची-समझी आ ली मोन सँ ई शपथ संज्ञान!! 

नारि बिना नहि मान पुरुष केर,नारि थिक पुरुषार्थक शान!
बंद करी कन्या भ्रूण-हत्या,नहि नारि बिना कल्याण!!


राजीव रंजन मिश्र
करते-करते ना जाने,वो क्या कर गये!
कहते-कहते ना जाने,वो क्या कह गये!
हमने तो उनको, कभी भी परखा नहीं!
जुल्मो-सितम उनके ,बाखुदा सह गये!!
वो घिरे थे चापलूसों से  कुछ इस कदर,
कि सारे वादे-वफ़ा पल भर में ढह गये!!
यूँ तो हमने  जी तोड़ कोशिश की मगर,
हमारे जज्बात सारे धरे के धरे रह गये!!
वो इस हद तक ऊँचा उठने की जिद में थे,
कि,सरे आम कुचे में बेआबरू रह गये!!

राजीव रंजन मिश्र

Friday, March 16, 2012

आओ अभिमन्यु! पुकार रहा,
फिर से, तुमको यह युद्धस्थल!
फैला है,हर कदम-कदम पर,
मकड़-जाल सा मायावी रिपु दल!!

अर्जुन का तीर और गदा भीम की,
हो दिग्भ्रमित! शांत पड़ा है निश्चल!!
सुन सको अगर तुम उस पुकार को,
तो होगा विदीर्ण हृदयस्थल!!

हर ओर मची है मार-काट,
पी रहा है मानव हालाहल!
हो रही छीण है आशाएं,
अति पीड़ित है ये धरातल!!

आओ, हे शूरवीर!
फिर एक बार,चक्रव्यूह भेदन को!
पर,सीख अवश्य  तुम लेना,
अब पूर्ण रूप से छेदन को!!

और,ध्यान रहे इस बार ओ प्यारे,
कि,साथ रहे कल-बल और छल!
आओ,अभिमन्यु! पुकार रहा,
फिर से, तुमको यह युद्धस्थल!!

---राजीव रंजन मिश्र
१४.०३.२०१२
जिसको भी मैंने झूमकर ,गले से लगा लिया!
उसने ही मुझको चूमकर,नश्तर लगा दिया!!
मैंने भूलकर भी न कभी ,शिकवा कोई किया!
हर जख्म को झेल,बस ख़ामोशी से रह लिया!!
मै आदतन हर  हाल में,उनका भला किया!
उनके ख़ुशी के वास्ते,हर गम को सह लिया!!
उन पर तो  जैसे,कोई जीद्द  सी सवार थी!
इक पल भी मेरे वास्ते,सोचना गवांरा नहीं किया!!
देखें लगन में किसकी,कितना असर है दोस्त!
रब ने कभी भी,अपना-पराया नहीं किया!!

---राजीव रंजन मिश्र
१४.०३.२०१२ 

Thursday, March 8, 2012


आबु होरी खेली हम सब,पान आ मखान सन!
आबु होरी खेली हम सब,मिथिलाक बखान सन!!
आऊ मनावी होरी जमि क,अबीर आ गुलाल सँ!
जे मोन ओत-प्रोत भ जै,सुमधुर मिष्ठान्न सन!!

आबु होरी खेली हम सब,नारिक प्रति सम्मान सन!
आबु होरी खेली हम सब,सदभावना सँ मोन- प्राण सन! 
जोर जबरदस्ती नहि करी, आ नै मचाबी ओ हूड़दंग!
जे बनि जै पूरा टोल, रातिक  टटूआयल श्मशान सन!!

आबु होरी खेली हम सब,राधा-कृष्ण रसिया महान सन!
आबु होरी खेली हम सब,पुनीत-पावन ब्रजधाम सन!!
आऊ मनावी होरी जमि क,एहि शपथ आ संज्ञान सँ!
जे उतरै नहि जल्दी,होरी में लागल भांग सन!!

आबु होरी खेली हम सब,स्वतंत्रताक शान सन!
आबु होरी खेली हम सब,गणतन्त्रक मान सन!!
भरि-भरि पिचकारी,मारी फुहार तीन रंग केर!
जे जतय खसै,ओतय बनि जाय हिंदुस्तान सन!!

---राजीव रंजन मिश्र 
०७/०३/२०१२


जीवन के जद्दोजहद  में,हम इस कदर मशगुल थे!
कि,साथ में रहकर भी,उनकी शक्सियत से मरहूम थे!!
उन्हें  बेहद गुमान था,कि वो मशहूर थे !
पर जीने के हमारे  भी,कुछ अपने उसूल थे!!
उनको ना इल्म था,कि कहाँ कौंधती है बिजलियाँ!
पर हम तो हर एक हाल में मजलूम थे!!
जब भी कभी,फर्ज निभाने की नौबत सी आ पड़ी!
तो  उम्मीद भी रखना उनसे,बेहद फिजूल थे!!
वक़्त भी रफ़्तार से ,कटता रहा हुजुर !
हम साथ में रह कर भी,साथी से दूर थे!! 
राजीव रंजन मिश्र 
०३.०३.२०१२

हम क्या लिखते हैं,कैसा लिखते है,
यह तो बहस की बात है,
पर सच्चाई यह है, 
कि,हम लिखते तो हैं!!
हमको न इस बात की,
है परवाह दोस्तों!
क्या यही काफी नहीं,
कि,हम सीखतें तो हैं!!
कुछ लोग ज़माने से.
अपने-आप को रखते है छुपाकर,
हमें ख़ुशी है इस बात की,
कि,हम सरेआम दिखते तो है!!
---राजीव रंजन मिश्र
०३.०३.२०१२

Tuesday, March 6, 2012

देखि क दुनियाँक रंग,
हम दंग  भ गेलहुं !
आब कि कहूँ अहाँ के,
ककरा संग हम छलहूँ!!
नहि छल कनिकबो ई गुमान,
कि होयत ई एनाह!
आब त ई झिक्झोड़ी सँ,
हम तंग भ  गेलहुं !!
नहि मोन आब लागैत अछि,
दुनियक भीड़ में!
संगी सँ बिछुरि क हम,
बदरंग भ  गेलहुं !!
पाबय ला साथ हुनकर,
कि-कि नै हम कैलहूँ!
सब किछु गवाय क हम,
नंग- धडंग भ गेलहुं !!
ककर छल ई मजाल जे,
करितैय  ई हमर हाल!
अप्पन के मारल हम सिमटि क ,
अन्तरंग भ गेलहुं !!
आबाहु छी बाँचल,
बस जीवट पर चलि रहल छी !
जौं साथ हुनक भेटल,
त मस्त मलंग भ गेलहुं !!

 ---राजीव रंजन मिश्र
०४.०३.२०१२

Monday, March 5, 2012


आओ फिर एक बार तुम,
मुझको सताने के वास्ते!
जीवन में तो यूँ ही,
होते रहेंगे हादसे!!
गर हो तुम्हारे दिल में 
यादों की दास्तां,
तो रह ना पायेगी कोई दूरी,
हमारे दरम्याँ! 
हम सह ना पाएंगे,
ये ग़मों के जलजले!
अब रुक जानी चाहिये,
हर हाल में,ये वादों के सिलसिले!! 
राजीव रंजन मिश्र 
०४.०३०२०१२ 

                               गजल 
मोन कहति अछि आब कहू,कहति रही त नहि सुनलौहूँ!
सबके कय्लौंहू,सबके धय्लौन्हू,मुदा मोन के नहि सुनलौहु!!
अपन देह के किछु नहि बुझलौहू,पर लोकक उपकारी बनलौहू!
सब अप्पन काज निकालति रहल,अहाँ निभेर सुतल रहलौन्हू!!
जौं बेर पड़ल अन्ठियाबय के,त आंखि खोलि चोउकस भैलंहू!
सब लुटि-लुटि क़ खाईत रहल,अहाँ मतसुन्न भ ताकति रहलौन्हू!!
आबहूँ नहिं किछु देर भेल अछि,सोचु नहि  आइ तक की कैलंहू!
गमबय  के लेल त किछु  होयत नहि थीक,जुनि सोचु सब लुटा अयलहुं!!
उठू  सम्हारि कय अपना के,आंखि खोलि कय काज करु!
जौं राम नई  राम राज कय सकला ,त  अहाँ हारि फेर किया लजैलौहूँ !!

----राजीव  रंजन मिश्र 
  ०३.०३.२०१२