Sunday, November 25, 2012


स्तब्ध खङे रहकर बरसों गुजारी है हमने यहाँ 
सोचों के कशमकश मे जिन्दगी की दहलीज पर

इस तरफ संस्कार और उस ओर चकाचौंध थी 
असमंजस रही मन में जिन्दगी की दहलीज पर

देखें है हमने क़त्ल होते अपनों के हाथों ही अक्सर 
विश्वास और अरमानों के जिन्दगी की दहलीज पर

रोती बिलखती नारियाँ और सूनी आँखे माँ-बाप के
हिला सके ना गैरत को उनके जिन्दगी की दहलीज पर

"राजीव" सोचता है क्यूँ भला इंसानियत की आज कल
घाटे का सौदा मानते लोग इसे जिन्दगी की दहलीज पर
राजीव रंजन मिश्र 

शिकवे भी होंगे शिकायत भी होंगे 
मगर इस जहाँ में इनायत भी होंगे 

बहूत खूब किसी ने कहा है दोस्तों 
बदस्तूर दुनिया में मोहब्बत भी होंगे 

कसक गर बनी रहे मीठी सी यादों की
तो बेशक जिन्दगी में नजाकत भी होंगे 

ना जाने कहाँ किस मोड़ पे टकरा जायें वो 
भरोसा नहीं है उनका बेमुरव्वत भी होंगे 

"राजीव" कब तक रहेगा खुद से खफा तू 
नाउम्मीदी हटा दे फिर नफासत भी होंगे 

राजीव रंजन मिश्र 

पूछो कभी जलते दीये की लौ से,
क्यों जल रहा वो इस कदर!

बेहद इत्मिनान से खिलखिला कर बोलेगा वो,
ऐ बन्दे! जलना भी अपने आप में है इक हुनर!

शिकवे भी होंगे और शिकायत भी जिंदगी में 
जिन्दादिली से जीना ही है वाजिब मगर!

उम्मीदों कि डोर छोड़ कर जीना नहीं इंसानियत है 
कौन जाने किस मोड़ पर मिल जाये वो मुनासिब सहर!

गर धड़कने भी साथ ना हो "राजीव" तेरे जिस्म के 
अपना भला है कौन फिर और कौन है आखिर दिगर!

राजीव रंजन मिश्र 

हिंदी गजल ५ 

आवाम क्यों जिद्दी बनी है बोलना ही चाहिये
सरे आम ये रुत चली है तोलना ही चाहिये

स्याह काली हो चुकी है यह चादर प्रजातंत्र की
इन्द्र की सत्ता भी अविलम्ब डोलना ही चाहिये

अब समाज प्रबुद्ध हो दिन रात आगे बढे 
द्वार नित नये मंजिलों के खोलना ही चाहिये

छोड़ सारे भेद भाव आओ मिटायें घोर तम
प्रगति  के सारे पथों को टटोलना ही चाहिये 

"राजीव" आ पड़ा है वक्त अब मिल कर चलें
जग में शांति विकास रस घोलना ही चाहिये 

राजीव रंजन मिश्र 

गजल-१३ 


कहियो दिवाली त कहियो रमजान मनि गेल
मंदिर आ मस्जिदक नामे त देश हक़नि गेल 

पाहिले एक्कहि गाछक दु गोट ठैढ छल दुनू
आइ काल्हि एक दोसर सँ अनजान बनि गेल  

छल संगहि संग कष्ट सह्बाक काल सदिखन 
सुखक घड़ी म सनकल आ अरारि ठनि गेल 

राम आर रहीम म कोनो अंतर कहाँ छलैक 
धर्मक नामे तहन कोना शोणित तपनि गेल 

होली म खाइत पुआ आ ईदक सेवई बँटाय
मुल्ला आ पंडित मुदा सभटा स्नेह दफनि गेल  

भगवान आ अल्लाह त एक्कै बना पठौने छला
नहिं जानि कोना हिन्दू आ मुसलमान बनि गेल 

गाँधी जिन्ना नेहरु आ गफ्फार सबहक "राजीव"
सनकी सभ दंगा फसाद कए मान हनि गेल 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१८)
राजीव रंजन मिश्र 

हिंदी गजल 

एक जमाना था जब बस नाम ही परचम हुआ करते थे 
उस ज़माने में कहाँ नाम के लिये तिकड़म हुआ करते थे 

लोग पहचाने जाते थे साफगोई के कारण ही समाज में 
कहाँ हर जुबाँ पर सस्ते इश्क के सरगम हुआ करते थे 

इश्क तो प्रेमी युगल के वास्ते बस मजहब के समान था 
नहीं वो वक्त के साथ बदलता हुआ मौसम हुआ करते थे 

हीर राँझा,लैला मजनू,शिरी व फरहाद भी पछता रहे होंगे 
उसूलों के वजह से ही तो उनपे जुल्मो सितम हुआ करते थे

इश्क में उनके एक गजब की मिठास थी वफादारी की यारों
हिसाबे महफ़िल से नहीं उनके बदले हुए नज़्म हुआ करते थे 

मोबाइल और फेसबुक बनी है नये दौर में दरगाह-ए-इश्क
कहाँ तो एक से निभाके बेचारे आशिक बेदम हुआ करते थे 

जिसे देखो वही है इश्क को रस्सी समझ मजबूती से थामे हुए
मगर सच है कि ये कभी इंसानियत का फलक्रम हुआ करते थे

"राजीव" हैरान है  इश्क की सरेआम नुमाइंदगी देख कर आज
इश्क तो इत्र नहीं यारों जख्म-ए-दिल का मरहम हुआ करते थे 

राजीव रंजन मिश्र 

यह जिवन तो है बस एक सफ़र 
सुख दुःख की राहों पर चलकर
निज मतवाली शान में है रहती 
निर्झर झरने सी निश्छल बहती 

हर कदम पे होंगी बाधायें कठिन
पर हम उनसे ना भागे घबरा कर
आशाओं का दामन थाम सतत ही 
चलते जायें बस जिवन के पथ पर 

धरा पर आये हैं हम मेहमान स्वरुप  
दिखता भावी जिवन  एक अंध कूप
है अनवरत रूप से चलती रहती यह
कर्मो के मुताबिक ढलती रहती यह  

हम मान चलें चलना ही जीवन है 
रुक जाना इस पथ पर बेमानी है 
कर्तव्य मार्ग पर डट कर रहे खड़ा 
स्वाधीन वीर की यही निशानी है 

गर अडिग रहें हम अपने सोचों पर
तो जिवन की बगिया खिल जाएगी
बिना रुके नित चलके इस यात्रा की 
निर्धारित मंजिल भी मिल जाएगी

राजीव रंजन मिश्र 

जिंदगी में एक सफ़र की तरह चलता रहा हूँ मैं 
जज्बातों को रिश्तों की तरह निभाता रहा हूँ मैं

रास्ते तो चुन लिये थे बर्षों पहले ही हमने कभी 
सोचा नहीं कभी भी क्या भला पाता रहा हूँ मैं

खुशियाँ भी आयी दर पे मेरे जिन्दगी की राह में 
नम्र हो स्विकारना दिल को सिखलाता रहा हूँ मैं

गम के कै सौगात भी मिलते रहे हैं बराबर हमें 
मान कर प्रभु प्रसाद  गले से लगाता रहा हूँ मैं

जीवन सफ़र होती है एक बहती हुई दरिया सरिस
सुख दुःख को पुलिने समझ कश्ती खेता रहा हूँ मैं 

गर बाँटने को बोला गया तो कोशिश रही बाँटू हँसी
गम  के अश्कों को सदा छुप छुप के पीता रहा हूँ मैं

"राजीव" क्या रखा है भला जमाने भर की बातों में 
लगा नित ध्यान प्रभु चरणों में बस जीता रहा हूँ मैं

---राजीव रंजन मिश्र 

सफ़र जिंदगी का ये बेहद सुहाना रहेगा
जूबां पर सभी के तेरा ही फ़साना रहेगा 

हरेक बुलंदी कदम चूम लेगी तेरे एक दिन 
गर जहाँ में निस्वार्थ रहकर बेगाना रहेगा 

भटकेगा जब तक तू खुशियों की चाहत में
मुश्किल तेरा खुल कर  मुस्कुराना रहेगा 

ज़माने ने हरदम सबको नवाजा है गम से
दस्तूर जारी इस जहाँ का यह पुराना रहेगा 

शिद्दत से बस तू लगे रह करम में रे मानव
लबे साज़ पे मचलता ख़ुशी का तराना रहेगा

अरमानों को संजो कर रख तू इत्मीनान से
हमेशा किसी एक का ना होकर जमाना रहेगा 

"राजीव"भला क्यूँ सोचता है तू कुछ पाने की 
जिवन सफ़र में कब तक बना दिवाना रहेगा 

राजीव रंजन मिश्र 


हे युधिष्ठिर! क्या तुम्हारे न्याय का ऐसा ही सांचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का कुछ ऐसा ही  ढांचा था!

हो हर तरफ अंधेरगर्दी और क्लांत होते वातावरण!
मच रहा हाहाकार हो,पर सौम्यशांत हो अंतःकरण!
सच्चाई जानकर भी यहाँ पर सभी खामोश रहते हैं!
बड़ी मासूमियत से दबकर सभी जुल्मो को सहते है!
क्या तुम्हारे इन्द्रप्रस्थ  राज्य का ऐसा ही खांचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का कुछ ऐसा ही ढांचा था!

जब काफी थे बस एक ही,दुर्योधन व दू:शासन,
यहाँ तो जमघट है उनकी,दिखता नही है कर्ण!
वहां तो भीष्म खैर अपनी प्रतिज्ञा से बंधे रहे,
यहाँ के भीष्म पितामहो से भला कोई क्या कहे!
क्या कभी कृष्ण ने अर्जुन से यही गीता में वांचा था, 
क्या तुम्हारे भावी भारत का कुछ ऐसा ही  ढांचा था!

एक द्रौपदी के चीड़-हरण ने रचाया था महाभारत,
यहाँ तो रोज़ लूटती हैं नारियां,हो-हो कर आरत!
वहां तो कृष्ण ने विदुर के घर साग खाया था,
यहाँ तो पग-पग में छाया है जाति और वर्ण!
अंधेरगर्दी क्या तुम्हारे काल में भी ऐसे ही नाचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का कुछ ऐसा ही  ढांचा था!

हे युधिष्ठिर! क्या तुम्हारे न्याय का ऐसा ही सांचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का कुछ ऐसा ही  ढांचा था!

---राजीव रंजन मिश्र 
   १९.०४.२०१२ 

हिंदी गजल ४  

कोई फिकर नही उन्हें इस मासूम जान का
चाहे उठायी जाये भले जनाजा अरमान का 
  
कोई मुझे बताये उनकी ख़ामोशी का सबब
हम सोच के परेशां है आने वाले तूफ़ान का

यार अब क्या सीना चीर कर दिखाई जाये
क्या हाल कर रखी है उसने बदगुमान का

सूनी सहमी सी आँखों में है मुद्दत से इंतज़ार
कोई  उन्हें याद दिलाये पता मेरे मकान का

जब हसरत भरी निगाहें देखी कभी "राजीव"
जेहन में उठी याद सी उस जुल्मी नादान का 

राजीव रंजन मिश्र 

घर के बड़े -बूढ़े,
गर सोच के देखा जाय तो,
पेड़ की डाली से लटके हुए,
पके आम की तरह ही होते हैं!
एक ओर,
अगर सम्हाला जाय,
उन्हें हर तरह से,
प्रकृति के झंझवातों से,
तो नित नये रूप से,
स्वाद  दिलाते हैं,
एक सुघड़ व रसीले,
जायके की!
और,दूसरी तरफ!
एक मामूली से,
पत्थर की ठोकर भी,
काफी होती है,
उन्हें मजबूर हो,
समय से पहले,
टपक कर गिर जाने को!
कुसमय,अधपके रूप में टूटकर,
सुनसान कर गुलशन से चले जाने को!

---राजीव रंजन मिश्र 

रास्ते से गुजरते हुए ये अक्सर सोचता हूँ मै  
कि कैसे मूक हो ज्यों की त्यों खड़े ये पेड़ हैं 
हम मानव द्वारा किये गए समस्त कर्मो को                                  
देख सुनकर जीवित नहीं जड़ हो पड़े ये पेड़ हैं 

बरसों से खड़े एक जगह निश्चल और गंभीर 
हमारे हर सही गलत कृत्य के ये गवाह हैं 
कभी कोई आप्पति ना जताते हुए किसी से 
अपनी सघन छाँव में दी सभी को पनाह है 

युग बीतती रही व बदलती रही आवोहवा 
नहीं बदला अगर तो बस इनकी दिनचर्या 
मौसम अनुरूप झड़ते फूलते फलते रहे ये 
ऩिरवरत करते रहे हम जीव की परिचर्या

कभी देखा इन्हों ने मासूम नवयुवतियों को
डाली से झूला लगाकर पेंग भर झूमते हुए 
और फिर कभी उन्हीं में से किसी परित्यक्त 
अभागन को देखा फांसी लगाकर झूलते हुए

देखा इन्हों ने बेफिक्र नौजवानों को निश्चिन्त
अपने तले बैठ ताश की मजलिस लगाते हुए
तो अक्सर बुजुर्गों को सुना आपस में बैठ कर 
बेदर्द दुनियाँ से हार निज आपबीती सुनाते हुए 

जीवित हैं पेड़ पौधे भी हमारी तरह मगर हम 
यह सर्वविदित तथ्य जान कर भी अनजान हैं 
क्यूँ  नहीं हम मानते इस बात को ह्रदय से बंधू 
कि चलती बस इन्हीं के बदौलत हमारी प्राण है

मगर हैरान हूँ मै देखकर इस जहाँ कि कृत्य को 
बिना सोचे लगे सब काटने हरी भरी सब वृक्ष को
न जाने क्या रहेगा अवशेष इस धरा पर उस दिन 
कमी पर जायेगी इन पेड़ पौधों कि यहाँ जिस दिन

लगाते एक हैं जो पेड़ कोई तो फिर सीना तान कर
कहते हैं बड़े गर्व से वो कि हमने किया है वृक्षरोपण 
अरे नादान कभी सोचा कि काट के लाखों पेड़ हमने
मानव और प्रकृति का किस रूप से करते रहे शोषण 

तो आओ दोस्तों हम मानकर इस बात को यह ठान लें 
कि जहाँ तक बन पड़ेगी निरंतर पेड़ पौधों को बचायेंगे 
बाप दादा की जमींदारी तो रही नहीं आज अपनी यहाँ 
रास्ते के किनारे ही सही कम से कम एक पेड़ लगायेंगे  


राजीव रंजन मिश्र 


                            " जख्म तो भर ही जायेगा जालिम"
दिल को रखें हम कुछ इस कदर ,
सोचों के सख्त साचें में ढालकर!

कोशिशें लाख भी की जाये मगर,
मन नाचे ना कोई सुर-ताल पर!

चोट खाए जिगर भले लाख गहरा,
हँस ना पाये कोई सूरत-ए-हाल पर!

जख्म तो सभी भर ही जायेंगे जालिम,
तालिम-ए-जख्म को रखें सम्हाल कर!

दिल में ख्वाईश का होना नहीं है बुरा,
गर हल्की लकीरें खिंची रहे गाल पर!

देने वाले खुदा ने सबको दिया है बराबर,
बस शिद्दत से अरमानो को रखें पाल कर!
----राजीव रंजन मिश्रा
  

जन्म हुआ है
मानव योनि पाया
सार्थक करे !!

जब से आये 
माँ-बाप परिवार
आश लगाये !!

बचपन में 
लाड़-दुलार पाया
जवानी आयी !!

शादी होते ही 
सब कुछ बिसरे 
हो मदमस्त !!

परिवार में 
दो और जुड़ गये
पालने लगे !!

अपने बच्चे 
जान से बढ़कर 
समझें सभी !!

ख्याल ना रहा 
जिम्मेदारी अपनी
माँ-बाप प्रति !!

जिसने  कष्ट 
हजारों है उठाये
पालन किया !!

वो माँ-बाप ही 
पराये हुए आज
कर्त्तव्य भूले !!

साकांच रहें
दुहरायी जाती है
इतिहास ही !!

कर्मो  का फल
मिलेगा आपको भी
समय पर !!

राजीव रंजन मिश्र 

सेनर्यु

लोक समाज 
संगठित चेतना
परिवर्तन !!

संस्था राखल  
समावेश सबके 
सफल क्रांति  !!

मउल  सजै
बरबोलक माथ 
डाढल मोन  !!

बड़ाव पाबि 
अभरन बढ़य 
अपद रोष  !!

चारि गोटेक 
राखल मतामत
सर्वसम्मति 

रहसि बोरि
सिखबय प्रणय 
पयगन्ड विज्ञानी  !!

चालि चलन 
अनेरो बिगड़ल 
करेज साती !!

सारंग भ 
निकलि गेलईक 
नांगरि ठप्प  !!

दूर देशक
समृद्धि जनगण
सोचक फल  !!

राजीव रंजन मिश्र 

मौका पाबिते
सहकाबय खुब
जगत मिथ्या !!
अप्पन लाभ
देखय सदिखन
मनुक्ख स्वार्थी !!
ज्ञानी पुरूष
स्वार्थक वशीभूत
अन्हरायल  !!
अप्पन  छोङि
लागल सबक्यऊ
दोसर पाछु  !!
समर्थ  लोक
चद्दैर ओढि कय
पिबैत घिउ !!
मान मर्यादा
नहिं  देता ककरो
आजुक  पिढी !!
लाज लेहाज
सबटा मेटलक
निर्लज्ज भेल !!
कहब याह
सम्हरु सबगोटे
लाज बचाउ !!
चरित्र निष्ठा
मानव  कल्याणक
उपाय  मात्र !!
राजीव  रजंन मिश्र


कुछ हिंदी हाइकू 
kuchh hindi haikoo

सात रंग की 
समुचित मिश्रण 
इन्द्रधनुष !!

saat rang ki 
samuchit misran
indradhanush
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बिजली कौंधी 
इन्द्र मेहरबान
ख़ुशी जीवन !!

bijli kaundhi 
indra meharbaan
khushi jiwan
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बरसे मेघ
धुंधला आसमान
तृप्त नयन !!
barse megh
dhundhla aasmaan
tript nayan
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श्याम बदरी
रिमझिम बारिश 
विह्वल मन !!
shyam badari
rimjhim baarish
vihwal man

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सूखते खेत
बृष्टि सुधा पाकर 
हरित हुए !!
sukhte khet
brishti sudha pakar
harit hue
**********************
ठूंठ पौधे भी 
सजीव हो उठते
सावन मास !!
thunth paudhe bhi
sajiw ho uth te
sawan maas
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सरस  बुँदे 
संजीवनी सरिस 
मानव हेतु !!
saras bunde
sanjiwani saris
manav hetu

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चौकन्ने पंक्षी 
टोह लेते मौसम 
नीड़ वापसी !! 
chaukanne pankshi
toh lete mausam
nid wapasi 
*********************
सिंचित कली
मदमस्त पराग 
भंवरें गाते !!
sinchit kali
madmast parag
bhaware gaate

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झरती बूंदें 
विरहन ह्रदय 
व्याकुल नैन !!
jhadti bunde
virhan hriday
vyakul nain
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ऊंचाई पाया 
तनिक गर्व नहीं 
पर्वत हैं वो !!
uchaai paya
tanik garw nahi
parwat hai wo
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निर्मल जल
कल कल बहते  
झड़ना कहें  !!
nirmal jal 
kal kal bahte
jhadna kahen
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अँधेरी रात 
दिखता नहीं कुछ 
अमावस्या है  !!
andheri raad
dikhta nahi kuchh
amawasya hai
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धवल रात्रि 
दिन सा चमकता 
रात पूर्णिमा!!
dhawal ratri
din sa chamakata
raat purnima
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मेह रात्रि की 
तृण पर चमके  
ओस कहाते  !!
meh ratri ki
trin per chamke
oas kahaate
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खिलता रूप
सुगन्धित रहते 
पुष्प सरिस  !!
khilta roop
sugandhit rahte
pushp saris

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राजीव रंजन मिश्र 

वह रात गयी सब बात गयी 
अब छोड़ ज़माने की दुश्चिंता 
चलता चल तू जीवन पथ पर
व्यवहार में रख कर शालीनता 

एक रात में जीवन बन जाती  
एक रात में ही जाती है बिगड़
पूनम की रात धवल  निश्छल 
रात अमावास की काली चादर

है दिवस अगर कर्तव्य बोध
तो रात हमेशा सृजन काल
थक जाते राही चलकर जब
रातें रखती है उन्हें सम्हाल 

हर किरण सुबह की मतवाली
हमको राह नया दिखलाती है   
हर रात समेटे सुमधुर स्वप्न
जीने की नित चाह जगाती है

दिन हो हताश सो जाता भी तो
होकर संघर्ष सचेतन रातें जगती
दिन रात के पावन संगम से ही
सतत चलायमान है यह धरती 

दिन रात के इस संयोजन से 
आओ हम सीखें मिलके रहना 
गर मान चलें हम भी सीमायें
जीवन चमकेगी बनके गहना   

राजीव रंजन मिश्र 

     

उठते है कहाँ  से भाव-तरंग!
मिलते  है कहाँ से उत्प्रेरण !!
आते हैं, कहाँ  से  सोच नये!
ढलते कैसे शाब्दिक साँचो में !!
कैसे,किस कारण,क्यों कर के!
लिख जाते,कागज के पन्नों पर!!
ये राज भला कोई जाने क्या!
शायर दिल को पहचाने क्या!!

यह क्षण-प्रतिक्षण,संयोजन है!
मन आवेशित,चिर वेदन है!!
जो भरा परा है, भावों  से!
वह मूर्त रूप,अन्वेषण है!!
हो चित्त-चिंतन से, पिरन जो!
वह शूल,भला कोई जाने क्या!!
ये राज भला कोई जाने क्या!
शायर दिल को पहचाने क्या!!

हो  सुबह,सुनहरी मतवाली!
या रात की चादर अंधियारी!!
मन झूम उठे, स्वंय हो विह्वल!
खिल उठे हर-एक,क्यारी-क्यारी!
खिलते हों नव-नित, फूल जहाँ!
वो बाग़ भला कोई जाने क्या!!
ये राज भला कोई जाने क्या!
शायर दिल को पहचाने क्या!!

---राजीव रंजन मिश्र
१२.१०.२०११

मानस पटल पर छायी सोचों को सारा दिन मै संजोता हूँ
शब्दों से फिर सींच उसे सुनी रातों में कागज पर बोता हूँ 

कैसी है मेरी ह्रदय कल्पना और कितनी है भाव प्रवीन सोच 
है मुझे नहीं यह ज्ञान आप विज्ञ जनों के आशाओं में होता हूँ 

वजह विषय प्रेम और आत्मसुख है,बंधू मेरे कविता लेखन का
दो चार कलम लिखने को हरेक खट्टी मीठी यादों में  खोता हूँ 

भवरें के सरिस मै घूम घूम नित जीवन की खिलती बगिया में 
यथाशक्ति चिन्हीत कर प्यारी कलियों की माला एक पिरोता हूँ 

गर रखे आप कुछ उचित विचार तो खुले दिल से है स्वीकार मुझे 
प्रक्षालित कर उस ज्ञान नीर से भावनाओं की चादर को मै धोता हूँ 

हो कविताएँ भाव सचेतन और जगत हो सरस पद्य की निर्मल धारा  
मांग यही वरदान सतत प्रभु परमेश्वर से नित सुख सपनो में सोता हूँ  
राजीव रंजन मिश्र 

हिंदी गजल 



दिन हमें  सोने नहीं देता और रात हमें जगाती है
दिन कुछ भूलने नहीं देता और रात याद दिलाती है

दिन भर का मारा जब हम लौट के घर को आतें है 
तो रात हमे उत्प्रेरित कर होठों पर बातें लाती है

दिन देता प्रति क्षण उत्साह हमे कुछ करने को
आगोश में लेकर रात हमे निज अंक सुलाती है

थक हार ज़माने के गम से जब होते हैं हम उद्वेलित
रात प्रेयसी बनकर हाथों में जाम लिये आ जाती है

दिन संघर्ष का द्योतक और रात है देती गति विराम
रात्रि की निश्छल नीरवता ही चंचल मन को भाती है

"राजीव"निश्चिन्त हो लोग रहें चाहे राजा हो या रंक
गोधुली के ढलते ही निद्रारथगामिनी  जब आती है 

राजीव रंजन मिश्र    



हिंदी गजल  

मै एक पथिक हूँ आवारा मुझको शकून चाहिये
मै एक सिपाही जोश भरा मुझको जुनून चाहिये

जिसको पढ़ रक्त खौल उठे आवेशित हो अंतर्मन
मुझको बस इस जीवन में वही मजनून चाहिये

हो सबका अधिकार बराबर और साथ हो कर्म
आज इस देश में बस यही एक कानून चाहिये

बरसे निर्झर प्यार निरन्तर जी के हर कोने में
हर वक्त इस धरा पर अब वही मानसून चाहिये

खिलखिलाता रूप और हो मन मोहता अंतःकरण
जिन्दगी की दुर्गम राह में वह पुण्य प्रसून चाहिये 

ईमान और गैरत से मिल जाय जो प्रसाद स्वरुप
"राजीव"जीवन निर्वहन को रोटी दो जून चाहिये

राजीव रंजन मिश्र 

जब रात के सुने अंधियारे में,खामोश फिजां हो जाता है!
तब सोच पटल पर मानस के,यूँ अक्सर ही छा जाता है!!
इस भाग दौर के बीच भला,तौले कब निज अंतर्मन को!
सोचे कुछ गहरे ठंढ़े मन से,वो समय कहाँ  मिल पाता है!!

हर  दिल के इक कोने से,एक आवाज कहीं से आती है!
यह भूल नहीं करना तुम,नित चेतन मन समझाता है!!
पर दबा सदा उन बातों को,चंचल चित से मनमानी कर!
जीवन  पथ पर ढीठ मनुज,निर्भय हो आगे बढ़ जाता है!!

कुछ लोग धरा पर ऐसे है,जो सोच सतत चतुराई  से!
निज कर्मो का विश्लेषण कर,कोई भूल नहीं दुहराता है!!
इस अमूल्य मानव तन का,सदुपयोग कर पूर्ण रूप से!
नित नव कीर्ति अलौकिक  कर, आदर्श बना जाता है!!

---राजीव रंजन मिश्रा
०३.१०.२०११


हिंदी गजल ३  

है मुश्किलों का दौर हालात भी कुछ अच्छी नही
चाहतों की क्या कहें बात भी कुछ अच्छी नही

बागबाँ भी क्या करे मौसम के बदले मिजाज हैं 
सुखा परा समूचा जज्बात भी कुछ अच्छी नही

दिल को सम्हाल रखा आँखों से निकल परी है
बेबाक अश्कों के खयालात भी कुछ अच्छी नही

चंद सिक्कों के बिनिमय में इंसान बिक रहा है
व्यवसायियों के वसुलात भी कुछ अच्छी नही

इस वतन में भी कभी इंसान थे खुशहाल 
दौराने गर्दिशें दिन रात भी कुछ अच्छी नही

"राजीव" बदल चूका है इस मूल्क में विवाह 
दूल्हा तो खैर छोड़ो बारात भी कुछ अच्छी नही


राजीव रंजन मिश्र 
२८.०८.२०१२

हिंदी गजल २ 

जिन्दगी एक मधुर झंकार होनी चाहिये
दौरान-ए-मुफलिसी भी प्यार होनी चाहिये

हो लाख के तादाद में मतभेद चाहे भले 
लोकहित के वास्ते इकरार होनी चाहिये

सदियाँ गुजर गयी है सोचते विचारते
अब संगठित तीव्र प्रहार होनी चाहिये

मौसम की तरह बदलते इंसान दोस्तों
कर्म वाणी से सही व्यवहार होनी चाहिये

कायरों की फौज युद्ध में जीता नहीं करते
"राजीव" हर जुबाँ पे हुंकार होनी चाहिये

राजीव रंजन मिश्र 


हिंदी गजल १


है मुफलिसी का आज कल ये हाल दोस्तों 
कि जिंदगी खुद ब खुद है बेहाल दोस्तों 

ना हमने की कोशिश ना वो पहल किये 
दिखता नहीं बदलता सूरतेहाल दोस्तों 

बिकती है इंसानियत सिक्कों के खातिर
लेकिन भला अब किसे है मलाल दोस्तों 

शिकवे शिकायतों का है दौर चल परा 
भार वहन करें सो कहाँ सवाल दोस्तों 

ऐ काश! कि सम्हल जाएँ वक्त के रहते
बच रहें हादसात से बाल-बाल दोस्तों 

मिलें है  बामुश्किले जन्नत की पेशकश 
आओ रखें इसे शिद्दत से सम्हाल दोस्तों 

'राजीव' जाने फिर ये मिले ना मिले हमें 
मौके का करे बेहतर इस्तेमाल दोस्तों 

राजीव रंजन मिश्र 


गजल-१८ 

जे भी कएने होइक दर्दक गोहार ने कैल 
सहैत रहलहुं हम मुदा चित्कार ने कैल 

अन्ठाओल बेर बेर हम स्वर्गक प्रलोभन 
मनुखता छोरि कखनहुं व्यवहार ने कैल

कर्मक उचित फल पाबै कँ हमरो छी हक़
दैव कहियो अपन आनक विचार ने कैल

दुखक समुद्र में अपस्यौंत भ रहल हम
सहल सुनल सदिखन हाहाकार ने कैल

किछु लोक जगतीक सह्बाक लेल होइथ 
डाहल करेज ककरो सँ साझेदार ने कैल

देखब "राजीव" रहि निर्विकार आ निर्विरोध
अनर्गल अहाँ प्रभु कोनो  अतिचार ने कैल 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१७)
राजीव रंजन मिश्र


गजल -१७  

बिगड़ल छै एहन कपार नोर कए
तोड़ने नहिं टूटल देबार नोर कए   

सए चेहरा निर्दोषक देखै क भेटत
सुनि कए देखब जौं विचार नोर कए 

लोकक सक्कत मोन किएक ने पिघलै
पाथरो क काटैत छैक धार नोर कए 

मुस्कीक गामे बसोबास छैक जिनकर 
ओ किएक बुझि पैता गोहार नोर कए 

रहितो अन्हार सभके चीन्ह गेल हम
सिखैल पाठ नै भेल बेकार नोर कए  

मोने जिनक छन्हि भेद भाब स भरल 
कहियो कि कए पैता सत्कार नोर कए 

"राजीव" सभक्यौ लूटय मजा गरीबक 
किनको बुत्ते ने भेल सम्हार नोर कए 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१५)

राजीव रंजन मिश्र 

गजल १६ 

खिलैत फूल के ने तोड़ल करु 
फूल के एना ने मचोरल करु 

चान तारा पाबय क लोभे अहाँ 
घरक चार क'  ने फ़ोड़ल करु  

देह झूलसि जाएत यौ समुच्चा 
तांतल मोन क' ने कोरल करु 

झूठ सच्चक छैक बोध जकरा 
तै ऐना सँ मुहँ ने मोड़ल करु  

मोन ठंढा करै जे शुद्ध विचार 
सै  चानन सँ नेह जोरल करु

गलत कए सह ने दी कखनो 
दोषी क सभ झकझोरल करु

बुझबा जौं आबै खराब "राजीव"
ठामे ठाम ओकरा छोड़ल करु 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१२) 

राजीव रंजन मिश्र 

गजल-१५ 

किछु ने किछु त' आब चमत्कार हैबा क चाही 
चाहे एहि पार आ कि ओहि पार हैबा क चाही 

टूटल लचरल आब रहब कतेक दिन 
संगठित होमय क सहयार हैबा क चाही 

आब ने एहि तरहे बीतय निसि-वासर यौ 
नेन्ना सँ बुढक मुहें ललकार हैबा क चाही 

माय बहिन बेटी कए मुहें आब सगरो सँ 
रणचंडी सन गर्जल हुंकार हैबा क चाही 

सहैति रही ने आब बुरिबक बनि बैसल 
ठामहिं ठाम जूल्मक प्रतिकार हैबा क चाही 

मुहें टा सए ने मैथिल बनि रही एकसरे
मिथिला मैथिल सन व्यवहार हैबा क चाही 

भेटत ने अधिकार बिना संघर्ष बुझि राखु 
जन गन में पाबै क' उदगार हैबा क चाही 

होईक सभक संग सभतरि सँ सभ रुपे 
मुदा क्षण भरि में नै घनसार हैबा क चाही 

छोट पैघ आ उंच नीचक आब छोड़ू भाभट 
सबहक एक सन अधिकार हैबा क चाही 

साल पैसठंम बीत रहल स्वतंत्र कहाँ छी 
सरिपहूँ स्वतंत्रताक नियार हैबा क चाही 

कहय "राजीव" नै हमरा सँ त' अहीं स बरू 
मिथिला आ मैथिल केर उद्धार हैबा क चाही 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१७)

राजीव रंजन मिश्र 

गजल-१४ 

कनी सोची खनिक लेल हम करय जे की चाही
पूछी आर बुझाबी मोन कए पाबय जे की चाही  

बिना सोचने करैत चलैत बड्ड दिन बीतल 
बजबाक काल ध्यान रहै बताबय जे की चाही  

कहल बुढ पुरान जे सत् बाजी हया राखि क'
मिठ्गर बोल सँ बुझा दी जताबय जे की चाही  

चुप्प रहब आ बड्ड बाजब दुन्नु ख़राब थिक 
माहिर त' इशारे बुझा दैथि होबय जे की चाही 

नै उखली बाप दादा आ नै सहैत रही सभटा 
सामंजस्य राखि कए आब करी तय जे की चाही  

किछु कैल केर दाबी आ किछु विद्रोहक भावना 
ध्यान राखि उभय पक्षक बिचारय जे की चाही 

समस्या  ने छैक कोनो जकर निदान नहि थिक 
जौं पूर्वाग्रह तजि सभ क्यौ नियारय जे की चाही 

विनम्र जौं ने ठीक त' उदंडतो ने छैक जवाब
दुनू कए सहजोरि सोची निकालय जे की चाही 


कथू करय स पहिले राखि ली अवधारि कए 
मुलभूत उद्देश्य समाजक होमय जे की चाही 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१८)

राजीव रंजन मिश्र 

           गजल-१२ 

आई मोन बेदर्दी पागल अछि
कतेक दिनक पियासल अछि  

नहि जानि हैत की आजुक राति
टेमी स ततारल दागल अछि

पोखरिक थम्हल पानि में जेना 
पाथर क्यउ एक मारल अछि

नहिं जानि हम सम्हरब कोना 
करेज हमर त डाढल अछि 

बुझबी एकरा हम परतारी
नै जानि अनेरो हकासल अछि

मानल नहि एक्को बात हमर 
"राजीव" बेकल भ' फाटल अछि 

(सरल वार्णिक बहर, वर्ण- १२)

राजीव रंजन मिश्र


आइ हम बहुत खुश छी
मुदा एखनो त बेबस छी

बान्हल स्वभावक जुन्नीसँ 
ठानि बैसल जे रभस छी

जिनगी  जे लागै छल भार 
बुझि परै बड्ड सरस छी

जे छला छिरियैल सगरो
सभतरि जस क तस छी 

पाबि मोनक चाहल सभ 
फूलि कए ठस्सम ठस छी

सच के मानी सरल मोने
"राजीव" कथिक बहस छी 


राजीव रंजन मिश्र 




आइ हम बहुत खुश छी
दुनिया बस झार फुस छी

कनैबा म सभ ओस्ताद छै
दुःख मिटबै ला कंजुस छी

सगरो छै सभ कुप्प भए
देखि हम रहै बिहुस छी 

करैत रही हजुरी नै त'
कहता जे हम खरुस छी

पुरतैन जौ आस त ठीक 
नै त कहता  मनहुस छी 

"राजीव" सभ करुगर छै 
हमहीं टा लबन चुस छी 




राजीव रंजन मिश्र 

Saturday, November 17, 2012


बेटाक बाप के मोटगर दहेज़ ल
नित्य बनैत संघाती देखलहूँ
बेटीक बाप के घाम चुआबति
करैत बज्र सन छाती देखलहूँ 
मांस आ मदिरा में डूबल रहि 
कचरैत खूब बरियाती देखलहूँ
पीने आर पियौने जमि क सभके 
व्यंजन परसति सरियाती देखलहूँ
नवकनियाँ के पाबय के बुझि क' 
दूल्हा के फुदकति कांती  देखलहूँ
मधुर स्वप्न स उबडूब मोने 
गाबैत दुल्हिन के पराती देखलहूँ
जाहि मिथिला में वर राम सन
आर सीया सन अहिबाती देखलहूँ
ओहि मिथिला केर पावन माटि पर 
बहैत शराबक परिपाटी  देखलहूँ

---राजीव रंजन मिश्र 
बेलूर,कोलकाता 

गजल-११ 

नै जानि मिथिला मैथिलीक संस्कार कहाँ चलि गेल यौ 
मिथिलाक पावन माटिक व्यवहार केहन भेल यौ 

सभ घुमि रहल मउल साजि सबतरि चहुँ दिस 
लागल निशि-वासर खिंचय म सबहक नकेल यौ 

खेत खरिहानक उपजा बारी आ लोकक खुशहाली 
मिटा रहल छै साले साले रौदी आ बाईढक मेल यौ

मोनक भार आ करेजक साती बेटी छै भेल किएक 
ई सवालक ने हल कोनो बढ़ल दहेजक खेल यौ 

सीता मिथिला क बेटी भ जीवन भरि कानैत रहली 
मिथिलाक बेटीक भागे कानबे किएक लिखि देल यौ   

स्वार्थे अन्हरायल सभ बेटी के गर्भहिं मारय छथि 
जौ नहिं चेतल तुरन्त त झखब नारि कए लेल यौ 

सुनल कलियुग सोचल कहल आ कैल टा मानय   
'राजीव' चालि प्रकृति सुधारी जुनि बनी बकलेल यौ 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-२०)

राजीव रंजन मिश्र 

बाल गजल-९

दीदी हम सभ मिलि क झंडा बनेबै ना 
पंद्रह अगस्त क'  तिरंगा फहरेबै ना 

भाईजी तू कागत केर झंडा बनाबय 
बांसक करची आनि क' डंडा लगेबै ना 

सभ गोटेक हाथे एक एक टा क चाही 
हम सभ संगहिं घर सँ  बहरेबै ना 

अहि दिनक बड्ड मोल छई गै बहिना 
घूमि घूमि सगरो से सभ के बतेबै ना  

तू सभ सुनिहैंन संच मंच बैस कए 
नेताजी बनि हम जे भाषण सुनेबै ना 

सभ गोटे ठाढ़ भए आँगन में संगहिं 
मिलल कंठ सँ जन गण मन गेबै ना 

झंडा फहरा क' प्रसादो त होबाक चाही 
बाबा सँ कहि क' खुब बुनिया मंगेबै ना  

पढि लिखि पैघ भ' देश आर समाजक 
"राजीव" सभ रुपे मान हम बढेबै ना  

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१५)
राजीव रंजन मिश्र 

              बाल गजल-८ 

गली गली में झंडा फहरेबै हम 
गामे गामे तिरंगा लए जेबै हम

बहुत मोल छैक स्वतंत्रता केर
घरे घरे सभके ई बतेबै हम 

केसरिया थिक बल आर विराग 
सभके बल पौरुष जगेबै हम 

उज्जर सत्त मोनक ईजोर छैक 
निश्छल रहि जिवन बीतेबै हम 

हरियर थिक खेतक लहलही 
धरती सए मोती उपजेबै हम 

चक्र अशोक कहय छै जे कहियो 
अन्याय कए नै माथ झुकेबै हम

'राजीव' सप्पत लैत छी सभ मिलि 
भारत मायक' मान बढेबै हम  

(सरल बार्णिक बहर,वर्ण-१३)

राजीव रंजन मिश्र 

कृष्ण जन्माष्टमीक शुभ अवसर आ जन्मक बाद बधैय्या नहि होइक त मोन नै मानत,प्रस्तुत अछि अपने लोकनिक समक्ष एक गोट रचना बधैय्याक  रूप में....विस्तृत प्रतिक्रियाक आकांक्षा रहत आ बाट जोहब:

भक्ति गजल-३
प्रगटल कृष्ण कन्हैय्या सभ गाबै बधैय्या छथि 
मंगल दीप जराबै जन्मल रास रचैय्या छथि 

नारद जी नाचथि आर संग में ब्रम्हा जी नाचथि 
तिर्पित सभ छै शंकर जी नाचै ता ता थैय्या छथि 

गोकुल में सभ मिलि  ढोल बजाबै मगन भए  
नर नारि बिहूँसि क' सगरो गाबै सवैय्या छथि  

नन्दराय दुन्नू हाथे लुटाबै छथि हीरा आ मोती  
स्नेह विभोर भ' निहूँछथि यशोमति मैय्या छथि 

साधू संत सभ हरषि धाओल चंहु दिसि सँए 
कष्ट निवारण ला आयल माखन खबैय्या छथि 

सगरो ब्रज गोकुल हरिआओल रातहिं राति 
मोर मुकुट धारी त' संसारक रखवैय्या छथि

चेतथि अपना के कंस आ दुर्योधन सभतरि
आयल मनमोहन कालिया नाग नथैय्या छथि 

"राजीव" मगन भए मनबय कृष्ण जन्मोत्सव 
दैत सभके सगरो कृष्णाष्टमिक बधैय्या छथि  

(सरल  वार्णिक बहर,वर्ण-१८)
राजीव  रंजन मिश्र 

भक्ति गजल-२

कन्हैया अहाँ प्रगटू न फेर एक बेर यौ 
नंदलाला अहाँ जन्मू न महि पर फेर यौ 

देखू भीर पड़ल  संतन पर चहुँ दिसि 
निर्दयी भए किएक अहाँ केने छी देर यौ 

दुनिया दारी सभटा बिगरल उजरल 
लागल छैक दुर्योधन आ कंसक ढेर यौ 

अर्जुन हारल आ भीमो त भागि परायल 
युधिष्ठिर बिन छै सौंसे मचल अन्हेर यौ 

अबला नारी घर घर बिलखि रहल छै 
चीर बढाबू कृष्णा भारतक नारी केर यौ 

प्रलय पड़ल अछि बिनबैत बुझबैत 
अहीं छी नंदलाला भक्त जनक सुसेर यौ 

"राजीव" करैत अछि विनती यदुनंदन 
हे मनमोहन जगत में करु उबेर यौ 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१६)

राजीव रंजन मिश्र 


भक्ति-गजल-१ 


हे श्याम सुन्दर राधावर गिरधारी यौ
हे मुरली मनोहर रसिक बिहारी यौ 


घोर बिप्पति पड़ल छै सगरो धरती 
बिनबै छी प्रभु एक बेर अवतारी यौ  

आबु फेरो हे यशोदा नंदन छाल्ही चोर 
हम देब माखन मिसरी भरि थारी यौ 

ब्रज भूमि सरिस देश सुन्न परल छै 
ज्ञान बिनु अकुलायल छै नर नारी यौ 

हे कान्हा केशव रास रचैय्या प्रगटू न' 
भीड़ परल अछि सन्तन पर भारी यौ 

जनमल कंस दुर्योधन सगरो महि 
नहि देखल अर्जुन भीम गदाधारी यौ 

बसन हीन भेल छैक अबला भारत 
लाज बचाबू चीर बढ़ा कृष्ण मुरारी यौ 

सहस्त्र कालिया बैसल छै छत्र काढने 
गंगा जमुना कोसी गंडक भेल कारी यौ 

ने आब अहाँ बिनु आस कोनो नंदलाला
कन्हैय्या नटवर नागर बनवारी यौ 

कल जोरि याह टा बस विनबै "राजीव"
ने तोहि बिसरि होई हेहर मुरारी यौ 

(सरल वार्णिक बहर वर्ण-१५)
राजीव रंजन मिश्र 

गजल-१० 


पूछै छी चुप्प कियाक कहब त ठेकानि पायब 
अहाँ जनितो अनजान रहि कोना जानि पायब 

सुनय निश्चित्ते चाहब मुदा मजबूर छी अहाँ 
अपने सोचक छी जकड़ल कोना त्राणि पायब  

मानब ने कहल कोनो हठधर्मिताक चलते 
रहल याह प्रवृति त' ने हँसि ने कानि पायब 

संगठन में छैक एकता आ ताहि भरोसे बल 
पानि चढ़ल नाक तक से कहिया मानि पायब 

चली जौं सभ मिलि बिसरि ऊँच-नीच केर भाब 
बुझु निःशंक रुपहिं जे राम-राज आनि पायब 

राजीव करै गोहार दुनु कौल जोरि सभहक़  
जाति-पाँति मानि ने कहियो देबाल फानि पायब 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१८)

राजीव रंजन मिश्र