पूछो कभी जलते दीये की लौ से,
क्यों जल रहा वो इस कदर!
बेहद इत्मिनान से खिलखिला कर बोलेगा वो,
ऐ बन्दे! जलना भी अपने आप में है इक हुनर!
शिकवे भी होंगे और शिकायत भी जिंदगी में
जिन्दादिली से जीना ही है वाजिब मगर!
उम्मीदों कि डोर छोड़ कर जीना नहीं इंसानियत है
कौन जाने किस मोड़ पर मिल जाये वो मुनासिब सहर!
गर धड़कने भी साथ ना हो "राजीव" तेरे जिस्म के
अपना भला है कौन फिर और कौन है आखिर दिगर!
राजीव रंजन मिश्र
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