शाम सबेरे यमुना तट पर
मूरलीधर धेनु चराते हैं
वृन्दावन की कुंजगली में
मनमोहक रास रचाते हैं
सुन बंशी की मधुर तान
ग्वाल-बाल हरषाते हैं
गोकुल की गलियों में
जमकर धूम मचाते हैं
मोह मिटाकर अर्जुन का
गाण्डीव उससे उठवाते है
न्यायार्थ बंधुओ का शमन
सर्वथा उचित बतलाते है
दुर्योधन घर मेवा त्यागे
साग विदुर घर खाते है
विपदा में जब पड़ी द्रौपदी
चीर बढाकर लाज बचाते हैं
निज अंक सुदामा को लेकर
कान्हा सखा धर्म निभाते हैं
वेंकट,केसव,कृष्ण,मुरारी
गोपी-जन-बल्लभ कहलाते हैं
जब-जब भीड़ पड़ी संतों पर
तब-तब भूतल पर आते हैं
मिटा भेद,तम हर प्रकाश भर
जीवों का दुःख-द्वेष मिटाते हैं
गणिका,गिद्ध,अजामिल भी
जिनके नज़रों से तर जाते हैं
ऐसे करुणामयी प्रभु-चरणों में
हम शत-शत शीश नवाते हैं
राजीव रंजन मिश्र
०६.०७.२०१२
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