वो जब भी याद आये तो,बस आते चले गए!
दिल और जिगर पे बेइंतहा,छाते चले गए!!
हमने तो बेहद कोशिशें,की मगर ऐ दोस्त!
क्या बताऊँ कि कैसे वो,दिल दुखाते चले गए!!
उफ़ किये बगैर ही,हरेक जुल्म सह लिया!
बेफिक्र हो कर बस वो, मुझको जलाते चले गए!!
मंजर-ऐ-आलम ये था कि सहना था दुस्सवार!
पर उनकी फितरत का क्या,जो कतराते चले गए!!
हमने ना जाने कौन सा,है भूल कर दिया!
जिसकी सजा हम, उम्र भर उठाते चले गए!!
मिलती है बामुश्किले,जन्नत की पेशकश!
हम बार-बार उसको भी,ठुकराते चले गए!!
---राजीव रंजन मिश्रा
०९.१०.२०११
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