नदी
नदी कहाय
जतय स निकली
सबके पाप
धोबैत खंघारैत
बटोरैत संताप !!
होई पहाड़
बा पठानी धरती
कि समतल
कलकल करैत
निष्छल बहैत छी !!
हिमखंड स
निकलि हम आबी
आदर्श रुपे
सबके जूड़बैत
समार्जन करैत !!
सूरज के दी
समुचित रूप सँ
जमाबय ला
खुब बरसाबय
धरती हूलसय !!
खेत-पथार
हमरे स सींचाय
उपजाबय
त मनुक्ख खाइथ
हमरा घिनाबैथ !!
दुःख हमर
क्यउ नहि बुझय
घकघोरि क
करेज जरबय
प्रदूषित करय !!
याह बुझाय
आब नै थिक मान
लगय जेना
बाँचब नहि आब
सुखैल जाइत छी !!
राजीब रंजन मिश्र
१४.०७.२०१२
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