किछु लोग नहि जानि कियाक?
घर सँ समाज सँ,
क्रित्य स आवाज़ स!
अपना आप के नुकबति,
मुख्या धारा में आबय स बचाबति!
नित सदिखन एहि सोच में रहति छथि,
ई ऐना होयतई,ओ ओना होइतई!
क्यओऊ अबितैथि अलादीनक चिराग लय क़,
हम टिका-टिप्पणी टा करितहुं,मूदा अनदेखार रहितहूँ!
बंधू लोकनि! की आहाँ के नहि लागति अछि?
जे हमरा लोकनिक ई सोच,
अपना आप के देखार करवाक प्रति संकोच!
एक मात्र कारण थीक,जे सब चीज अछैत,
हम सब रुपे ठुकरायल छी,हंसिया पर आबि बईसलl छी!
अपना-अपना धुनि में रहिकय,सब किछु हराय आयल छी!
आ, जौं आहाँ मानति छी?
त आबु डेग बढाबी,
अलग रहबाक सोच छोरि,देखार होयबाक संकोच छोरि,
बंधू लोकनि आबु एक संग,निज आत्मज्ञान के खुरपी स कोरि!
फहराबी हम एहि ध्वज के,संकल्पक ओहि रस्सी स!
जे झुका सकय नहि क्योऊ,टिका-टिप्पनिक हँस्सी स!
----राजीव रंजन मिश्र
२६.०१.२०१२