गजल-६६
घुरि ताकि जौँ देखबत' तरि जैत ई जगती
गहि हाथ जौँ पकरब हहरि जैत ई जगती
गहि हाथ जौँ पकरब हहरि जैत ई जगती
ई आँखि मे हिरनीक सन डूबि जे भाँसत
दिन राति ओ बिसरत बिसरि जैत ई जगती
दू पाँति ई ठोढकत' जनि गीत आ कविता
हँसि गाबि जौँ थिरकबत' गरि जैत ई जगती
हँसि गाबि जौँ थिरकबत' गरि जैत ई जगती
मधु मास छै मिठगरत' अहि रूप के चलते
सभ हारि जौं भेटत नमरि जैत ई जगती
सभ हारि जौं भेटत नमरि जैत ई जगती
कहि गेल जे मोनकत' बकलेल ने बूझब
लखि रूप ई नेहकत' ढरि जैत ई जगती
221 2221 221 222
@ राजीव रंजन मिश्र