देखता ही रहा,मै य़ू ही हर हमेशा!
खुशियाँ आई मगर मुस्कुरा न सका!!
कहने को तो,चमन खिल रहे थे मगर!
हार फूलों का फिर भी पीरों न सका!!
मन में कुढ़ता रहा,अपने किस्मत पर मगर!
खुल कर जुल्मो-सितम पे रो न सका!!
थी मयस्सर मुझे,सेज फूलों की मगर!
नींद अमन चैन की फिर भी सो ना सका!!
तनहा कटता रहा,जिंदगी का सफ़र!
अपना कोई हमारा हो ना सका!!
तहे दिल से,जीवन में चाहा जिसे!
'मीत' उनके ही दिल को भा ना सका!!
---राजीव रंजन मिश्रा 'मीत'
१३/०२/१९९५
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