Sunday, November 25, 2012


गजल-१८ 

जे भी कएने होइक दर्दक गोहार ने कैल 
सहैत रहलहुं हम मुदा चित्कार ने कैल 

अन्ठाओल बेर बेर हम स्वर्गक प्रलोभन 
मनुखता छोरि कखनहुं व्यवहार ने कैल

कर्मक उचित फल पाबै कँ हमरो छी हक़
दैव कहियो अपन आनक विचार ने कैल

दुखक समुद्र में अपस्यौंत भ रहल हम
सहल सुनल सदिखन हाहाकार ने कैल

किछु लोक जगतीक सह्बाक लेल होइथ 
डाहल करेज ककरो सँ साझेदार ने कैल

देखब "राजीव" रहि निर्विकार आ निर्विरोध
अनर्गल अहाँ प्रभु कोनो  अतिचार ने कैल 

(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१७)
राजीव रंजन मिश्र

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