गजल-१५
किछु ने किछु त' आब चमत्कार हैबा क चाही
चाहे एहि पार आ कि ओहि पार हैबा क चाही
टूटल लचरल आब रहब कतेक दिन
संगठित होमय क सहयार हैबा क चाही
आब ने एहि तरहे बीतय निसि-वासर यौ
नेन्ना सँ बुढक मुहें ललकार हैबा क चाही
माय बहिन बेटी कए मुहें आब सगरो सँ
रणचंडी सन गर्जल हुंकार हैबा क चाही
सहैति रही ने आब बुरिबक बनि बैसल
ठामहिं ठाम जूल्मक प्रतिकार हैबा क चाही
मुहें टा सए ने मैथिल बनि रही एकसरे
मिथिला मैथिल सन व्यवहार हैबा क चाही
भेटत ने अधिकार बिना संघर्ष बुझि राखु
जन गन में पाबै क' उदगार हैबा क चाही
होईक सभक संग सभतरि सँ सभ रुपे
मुदा क्षण भरि में नै घनसार हैबा क चाही
छोट पैघ आ उंच नीचक आब छोड़ू भाभट
सबहक एक सन अधिकार हैबा क चाही
साल पैसठंम बीत रहल स्वतंत्र कहाँ छी
सरिपहूँ स्वतंत्रताक नियार हैबा क चाही
कहय "राजीव" नै हमरा सँ त' अहीं स बरू
मिथिला आ मैथिल केर उद्धार हैबा क चाही
(सरल वार्णिक बहर,वर्ण-१७)
राजीव रंजन मिश्र
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