वह रात गयी सब बात गयी
अब छोड़ ज़माने की दुश्चिंता
चलता चल तू जीवन पथ पर
व्यवहार में रख कर शालीनता
एक रात में जीवन बन जाती
एक रात में ही जाती है बिगड़
पूनम की रात धवल निश्छल
रात अमावास की काली चादर
है दिवस अगर कर्तव्य बोध
तो रात हमेशा सृजन काल
थक जाते राही चलकर जब
रातें रखती है उन्हें सम्हाल
हर किरण सुबह की मतवाली
हमको राह नया दिखलाती है
हर रात समेटे सुमधुर स्वप्न
जीने की नित चाह जगाती है
दिन हो हताश सो जाता भी तो
होकर संघर्ष सचेतन रातें जगती
दिन रात के पावन संगम से ही
सतत चलायमान है यह धरती
दिन रात के इस संयोजन से
आओ हम सीखें मिलके रहना
गर मान चलें हम भी सीमायें
जीवन चमकेगी बनके गहना
राजीव रंजन मिश्र
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