Sunday, November 25, 2012


वह रात गयी सब बात गयी 
अब छोड़ ज़माने की दुश्चिंता 
चलता चल तू जीवन पथ पर
व्यवहार में रख कर शालीनता 

एक रात में जीवन बन जाती  
एक रात में ही जाती है बिगड़
पूनम की रात धवल  निश्छल 
रात अमावास की काली चादर

है दिवस अगर कर्तव्य बोध
तो रात हमेशा सृजन काल
थक जाते राही चलकर जब
रातें रखती है उन्हें सम्हाल 

हर किरण सुबह की मतवाली
हमको राह नया दिखलाती है   
हर रात समेटे सुमधुर स्वप्न
जीने की नित चाह जगाती है

दिन हो हताश सो जाता भी तो
होकर संघर्ष सचेतन रातें जगती
दिन रात के पावन संगम से ही
सतत चलायमान है यह धरती 

दिन रात के इस संयोजन से 
आओ हम सीखें मिलके रहना 
गर मान चलें हम भी सीमायें
जीवन चमकेगी बनके गहना   

राजीव रंजन मिश्र 

     

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