बहुत हुआ कोलाहल अब शांति सुधा रस पाने दो
बहुत रहा बेगाना स्वयं के हेतु मुझे अब जीने दो
बहुत चखा हूँ जाम ख़ुशी के जीवन के मदिरालय में
भूल जगत की मिथ्या रस निज अश्कों को पीने दो
तार तार हो रहे कल्पना और सोच हुई है तितर बितर
अब समेट पीङित भावों को चिंतन के धागे से सीने दो
देख लिया मधुमास तेरा मदमस्त बसन्त भी हो आया
भाये ना चमन के फूल कोई भी अब पतझड़ को आने दो
श्रृंगार नहीं वो रस जिसके खातिर मै दर दर भटक रहा था
"राजीव" लेखनी के बल पर मानव के सोये पुरुषार्थ जगाने दो
राजीव रंजन मिश्र
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