कब तक दोष देकर किस्मत को
इस कदर यूँ भरमाओगे खुद को
कहाँ तक पत्थरों को पूज कर ही
दिन रात बस बहलाओगे खुद को
यह चक्र तो चलता रहेगा हर घङी
बदलता रहेगा सदा खुदगर्ज जमाना
नियति है इस भरे संसार मे दोस्त
आदमी का आदमी से दुर हो जाना
इस कदर यूँ भरमाओगे खुद को
कहाँ तक पत्थरों को पूज कर ही
दिन रात बस बहलाओगे खुद को
यह चक्र तो चलता रहेगा हर घङी
बदलता रहेगा सदा खुदगर्ज जमाना
नियति है इस भरे संसार मे दोस्त
आदमी का आदमी से दुर हो जाना
स्वयं को भूला कर चल दिये हम
मदमस्त होकर एक राह पर ऐसे
नहीं रहा कोई भान सही गलत का
खुश रहे मानवता छोङ कर जैसे
चिखती रही इंसानियत बेतहाशा
सुनते रहे हम निजसुख का तराना
नियति है आदमी..................
मदमस्त होकर एक राह पर ऐसे
नहीं रहा कोई भान सही गलत का
खुश रहे मानवता छोङ कर जैसे
चिखती रही इंसानियत बेतहाशा
सुनते रहे हम निजसुख का तराना
नियति है आदमी..................
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