हे प्रभू ! नजरें फिराना अब जब कभी संसार में
इन्सां को बस इन्सां बनाना बात और व्यवहार में
दामन छुड़ा कर जी रहे हम आजकल इंसानियत से
जज्बातों का न कोई मोल अब इस कलयुगी बाज़ार में
बस एक ही है सोच कि कैसे खुदी को कर लूं बुलंद
बाँकी बची न निष्ठा किसी की अब कोई संस्कार में
भ्रष्ट हो गये पंडित और मौलाना भी हैं काफ़िर हुए
ढूंढे मिले ना सत्य कहीं क्या मंदिर क्या मजार में
"राजीव" जब तब सोचता है देख कर चारो तरफ
किसको भला है क्या मिला इस बेवज़ह तकरार में
राजीव रंजन मिश्र
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