जिंदगी के सफ़र में जो मेरे हमराह हैं
जाने क्यूँ नाराज़ वो इस कदर खामखाह हैं
फासला बढ़ता गया हर कोशिशों के बावजुद
अब तो ढूंढे हल न दिखता टेढ़ी-मेढ़ी राह हैं
ऐ खुदा मुझको बता किस बात से है वो खफा
इक बार तो ये जान लूं कि वो कौन सा गुनाह हैं
जन्नत मिले उनको जिन्हें थी आरजू उस बात की
चंद लम्हें पाऊँ सुकूँ के बस यही एक चाह है
क्यों मुन्तजिर बैठा है तू पलके बिछाये राह में
मिलता नहीं है हर किसी को "राजीव"वाह-वाह है
राजीव रंजन मिश्र
20.11.2012
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