गजल २९
अहि जग केर सभटा रीती बिरल छै
नहिं सत केर कत्तहु मोल रहल छै
चहुँ दिस सभ बाँझल थिक अनेरोक
नहि आब ककरो कोनो होश बचल छै
सभ आइ प्रेम करय छैक चाहत ला
स्नेह बाटक सभटा नीति बिसरल छै
देखि लोकक स्वार्थ भरल चालि प्रकृति
निक मनुख सभ चुप भए बैसल छै
छूछ्छो शाने घुमि रहल लोक सांढ बनि
मनुखता छोरि क' माल जाल बनल छै
सत केर नहि आब गुजारा कोनो रूपे
झूठक खेल सभ बान्ह तोरि बढ़ल छै
गाछी बिर्छी खेत पथार सभ सुखैल जै
समय साल देखि क' राजीव बेकल छै
(सरल वार्णिक बहर वर्ण-१५)
राजीव रंजन मिश्र
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