अगर सोचने पर आयें हम तो बातें हज़ार हैं
ये बात और कि हम किस हद तक तैयार हैं
भूख के सौ चेहरे दिखते रहते यहाँ दिन रात
बेशक हर एक के मगर अपने तीमारदार हैं
दो रोटी नहीं मयस्सर कहीं भूख मिट़ाने को
खा-खा कर दिन रात मगर लाखों बीमार हैं
कुछ करने की भूख को सिद्दत से संजोकर
"कल्पना" दिखें जाते हुए अन्तरिक्ष पार हैं
प्रेम और सौहार्द के भूखे मासूम भटक करके
इंसानियत को "कसाब" बन करते शर्मसार हैं
कहाँ तक गिराता इन्सान को वासना की भूख
"कोली" और "पंढेर" के भी हमें हुए दीदार हैं
"राजीव" मिटायें भूख को बजाय हम बढाने के
दिन जिंदगी के यहाँ मिलते गिने-गिनाये चार हैं
राजीव रंजन मिश्र
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