आज के उनवान: लज्जा/अस्मत/इज्जत पर जितना भी लिखा/कहा जाय वह कम है,पर पता नहीं क्यों आज पहली बार वर्तमान परिस्थितियों में अपने को असहाय सा महसूस किया कुछ भी लिख पाने में,फिर भी चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत है:
छाई है चंहु ओर
दरिंदगी की शोर
लोग हुए मतशुन्य
व्यवहार हुए मूर्धन्य
मानवता है आज शर्मशार
अब छिन्न हुए हैं
मनुष्यत्व तार-तार
कर रहे शील का भक्षण
सोचें,फिर कैसे
हो लज्जा रक्षण!
ऐ,बुजदिल,कायर!
नर रुपी अधम निशाचर
मत लज्जित कर
यूँ पुरुषत्व को
है धिक्कार तेरे
तुच्छ अस्तित्व को
गर रहे यही
जो चाल चलन
सोचें,फिर कैसे
हो लज्जा रक्षण!
मन विवेक हीन
तन वसन हीन
कर्म दीन हीन
धर्म निष्ठा विहीन
व्यापित है तृष्णा
कण कण में
है मृतप्राय सा
चिंतन जन गन में
सोचें,फिर कैसे
हो लज्जा रक्षण!
राजीव रंजन मिश्र
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