नजर से जब नजर मिल जाय तो फिर शुरुआत होती है
जिगर से गर जिगर मिल जाय तो फिर बात होती है
समां रंगीन हो पुरकश और जवाँ दिलकश नजारें हों
बेकाबू तभी तो यक़ीनन जालिम जज्बात होती है
किसी को क्या खबर थी कि चांदनी रातों की किरणों में
नहाकर पाकीजगी से हुस्न खुद एक कायनात होती है
जुबां खामोश हो और धड़कने सिफारिश कर रही होती
तभी तो यार दिन के उजाले में मुकम्मल रात होती है
किसी के इश्क में हम गहराई से ही डूब कर "राजीव"
पता चलता हैं कि क्या भला रौनक-ए- हयात होती है
राजीव रंजन मिश्र
No comments:
Post a Comment