प्यार सभी को है अपनों से,
अपने शोहरत की है सबको चाह!
अपने शोहरत की है सबको चाह!
जीवन के पथ पर चलकर अपने,
सबने पाया है समुचित राह!!
सबने पाया है समुचित राह!!
दुनिया वालों की राह रोक कर,
सब अपना राह बनाते है!
सब अपना राह बनाते है!
लोगों से सब कुछ छीन- झपट कर,
अपना घर-बार सजाते है!!
अपना घर-बार सजाते है!!
कईयों का घर-द्वार तोरकर,
अपना महल बनाते है!
अपना महल बनाते है!
गैरों का दिल बाग़ तोरकर,
वो अपना चमन खिलते है!!
वो अपना चमन खिलते है!!
ऐ नादाँ,जरा सोचो,
पशु पक्छी भी अपना पेट चलाते हैं!
पशु पक्छी भी अपना पेट चलाते हैं!
इतना तो कम से कम ख्याल करो,
हम ही मानव क्यों कहलाते है!!
हम ही मानव क्यों कहलाते है!!
अपनी राहों के साथ साथ जो,
गैरों का राह बनाते है!
गैरों का राह बनाते है!
अपने धन को बाँट-बाँट कर,
जो निर्धन को धनी बनाते है!!
जो निर्धन को धनी बनाते है!!
अपने भूख की परवाह छोरकर,
जो भूखों की भूख मिटाते हैं!
जो भूखों की भूख मिटाते हैं!
अपने गुलशन में फूल खीलाकर,
जो सारा संसार सजाते है!!
जो सारा संसार सजाते है!!
जीवन को आपने आदर्श बनाकर जो,
सारे जग को राह बतलाते!
सारे जग को राह बतलाते!
अरे नादान!जरा सोचो,
क्या वो ही राम और कृष्ण नहीं कहलाते?
क्या वो ही राम और कृष्ण नहीं कहलाते?
दुनियां की ख़ुशी की परवाह छोर,जिस फ़रिश्ते को कोई चाह नहीं!
ईश्वर की गरिमामय सत्ता का,है सच्चा शाहंशाह वही!!
---राजीव रंजन मिश्रा
२२/०६/१९९५
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