Monday, January 7, 2013


शब्द ही हर पीड़ हरते
शब्द ही निःशब्द करते
शब्द ही मारे मनुज को
शब्द ही तो  प्राण भरते
शब्द गर समुचित रहे तो
रिश्ते सहज उड़ान भरते 

शब्द से ही सम्बन्ध बनते
शब्द से ही जीवन हैं सजते
भावनाओं को कह बताते
वेदनाओं को भी हैं जताते 
शब्द जब फिसले जुबाँ से
अनर्थ तब घनघोर मचते 

शब्द ही कारण दुखों का
शब्द से ही कहर बरपते
शब्द ही रस घोलते नित
शब्द से पत्थर पिघलते
शब्दों का बस खेल सारा
शब्द ही सुख संसार रचते 
  
शब्द वीरों के हुँकार भरते
शब्द के हारे कायर कहड़ते
शब्दों को रख सदैव समुचित
मन कभी ना करके उद्वेलित
शब्दों का लेकर वो सहारा
हैं नित नये आयाम चढ़ते

शब्दों में अगर संवेदना हो
मनुष्यता की गर वंदना हो
फिर तो रहे कोई द्वन्द कैसा 
किस हेतु हम कोई कष्ट सहते
शब्दों को नित रख नियंत्रित
सुख-शांति के झूले में पलते 

राजीव रंजन मिश्र   
    

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