Sunday, July 8, 2012

हे युधिष्ठिर! क्या तुम्हारे न्याय का ऐसा ही सांचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का ऐसा ही  ढांचा था!

हो हर तरफ अंधेरगर्दी और क्लांत हो वातावरण!
मच रहा हाहाकार हो,पर शांत हो अंतःकरण!
सच्चाई जानकर भी, सभी खामोश रहते हैं!
बड़ी मासूमियत से दबकर,जुल्मो को सहते है!
क्या तुम्हारे राज्य  का ऐसा ही खांचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का ऐसा ही ढांचा था!

जब काफी थे बस एक ही,दुर्योधन व दू:शासन,
यहाँ तो जमघट है उनकी,दिखता नहि है कर्ण!
वहां तो भीष्म खैर अपनी प्रतिज्ञा से बंधे रहे,
यहाँ के भीष्म पितामहो से भला कोई क्या कहे!
क्या कभी कृष्ण ने यही गीता में वांचा था, 
क्या तुम्हारे भावी भारत का ऐसा ही ढांचा था!

एक द्रौपदी के चीड़-हरण ने रचाया था महाभारत,
यहाँ तो रोज़ लूटती नारियां,हो-हो कर आरत!
वहां तो कृष्ण ने विदुर के घर साग खाया था,
यहाँ तो पग-पग में छाया है जाति और वर्ण!
अंधेरगर्दी क्या तुम्हारे काल में ऐसे ही नाचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का ऐसा ही  ढांचा था!

हे युधिष्ठिर! क्या तुम्हारे न्याय का ऐसा ही सांचा था,
क्या तुम्हारे भावी भारत का ऐसा ही  ढांचा था!

---राजीव रंजन मिश्र 
   १९.०४.२०१२ 

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