गजल-३४८
लोक लोककेँ भेँट करै छल एक दिवाली ओहो छल
एक एककेँ मोन मिलै छल एक दिवाली ओहो छल
एक एककेँ मोन मिलै छल एक दिवाली ओहो छल
छोट पैघकेँ पैर छुबय आ जेठ लगाबै छातीमे
गाम गाममे दीप बरै छल एक दिवाली ओहो छल
गाम गाममे दीप बरै छल एक दिवाली ओहो छल
सभ निकलि कँ घूमै सगरो घर आंगन दरवज्जा सभकेँ
राति राति भरि लोक जगै छल एक दिवाली ओहो छल
राति राति भरि लोक जगै छल एक दिवाली ओहो छल
भेँट घाँटमे नेह रहै आ स्वाद बताशा लाबामे
चाह पानि पर गप्प चलै छल एक दिवाली ओहो छल
चाह पानि पर गप्प चलै छल एक दिवाली ओहो छल
ऊँक पातिके आगि धरौने बनबय उक्का लोली आ
दोग कोनमे खूब भँजै छल एक दिवाली ओहो छल
दोग कोनमे खूब भँजै छल एक दिवाली ओहो छल
आहि आइ राजीव उठय अछि कोन बजर जे खसि परलै
नेह प्रेम लै लोक मरै छल एक दिवाली ओहो छल
नेह प्रेम लै लोक मरै छल एक दिवाली ओहो छल
२१२१२ २११२२ २११२२ २२२
®राजीव रंजन मिश्र
No comments:
Post a Comment