Saturday, November 17, 2012


                गजल (६)

घर उजारै बाला कहीं बेघर नै  भ जाइ
हया राखि के रहू कहीं हेहर नै भ जाइ

उठैत धुआँ में निधोक अहाँ स्वांस लैत छी
आगि लागि कहीं छाउर सगर नै भ जाइ

दिनक इजोर में साधु बनि रहय बला
रातिक रूप में कहीं उजागर नै भ जाइ

मउल साजि माथ पर बौरल सभ गोट
प्रकृतिक निरसल तरुअर नै भ जाइ

सत बजबाक  ककरो साहस नै रहल 
चुप्प रहि देखैत कहीं पाथर नै भ जाइ 

कखन धरि कात रहि बहलैब मोन के 
कहीं मनुक्खक वर्ग सँ बाहर नै भ जाइ

राजीव चिकरि सब के कहय छै सगरो 
सम्हरू आबहूँ कहीं निशाचर नै भ जाइ

सरल वार्णिक वर्ण -१६ 

राजीव रंजन मिश्र 

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