Sunday, December 9, 2012


कब तक दोष देकर किस्मत को
इस कदर यूँ भरमाओगे खुद को
कहाँ तक पत्थरों को पूज कर ही
दिन रात बस बहलाओगे खुद को
यह चक्र तो चलता रहेगा हर घङी
बदलता रहेगा सदा खुदगर्ज जमाना
नियति है इस भरे संसार मे दोस्त
आदमी का आदमी से दुर हो जाना
स्वयं को भूला कर चल दिये हम
मदमस्त होकर एक राह पर ऐसे
नहीं रहा कोई भान सही गलत का
खुश रहे मानवता छोङ कर जैसे
चिखती रही इंसानियत बेतहाशा
सुनते रहे हम निजसुख का तराना
नियति है आदमी..................

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