Sunday, December 9, 2012


दोस्त! अगर मानी जाय तो एक बेहतरीन आनंद है 
आज के दौर में दिखती मगर एक बेतरतीब छंद है

दोस्त मजहब दोस्त मकसद दोस्त ही तो है जिन्दगी 
मिलता मगर ऐसी मैत्री करने व निभाने वाला चंद है  

बदलते लिबास की तरह दोस्त बनायें जातें हैं आज
कभी जरुरत जो कोई आ पड़ी तो दिखा जुबान बंद है

कहाँ तो कृष्ण-सुदामा व राम-सुग्रीव की मैत्री सुनी थी 
पर आज तो बस अपने फायदे के लिये सब फिकरमंद है

जिस हिंदुस्तान में विभिन्नता में एकता हुआ करती थी
उसी देश में जाति-धर्म के नाम पर फैली मार काट द्वंद है

दो घड़ी की मुलाकातें व चंद अल्फाजों के सिलसिले 
इनके बदौलत ही हर कोई दोस्ती का ख्वाहिशमंद है   

खूबसीरती को कौन भला पूछता है अब यहाँ जालिम 
दोस्तों के नाम पर बस सभी को खूबसूरती पसंद है  

न जाने क्या क्या बना रखा है हमने दोस्ती को आज 
न उम्र की लिहाज रही न कोई भी कहीं अहसानमंद है   

"राजीव" देख कर आज सखा धर्म की हालत यहाँ 
हो रहा नित दिन इंसानियत का भी हौसला मंद है 

राजीव रंजन मिश्र 

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