Monday, June 30, 2014

गजल-२६५ 

की करत के दिक्क ककरो
हारि बैसल सोह अपनों  

चान कहलक चांदनीकेँ 
जैब ने मनमीत कहियो 

नेह डाढ़ल मोन आतुर 
घुरि बटोही ताक फेरो 

आब की बाँचल जमाना 
खीच रहलै बाँस कोरो 

जे मनुख राजीव से धरि 
नै उताहुल हैत कखनो 

२१२२ २१२२ 
@ राजीव रंजन मिश्र 

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