Tuesday, January 7, 2014

गजल-१६४ 

मनुख माल जालकेँ लजा देलक 
छिया डेग डेग पर घिना देलक 

कुकरमी त' भेल पातकी देखू 
सहकि नाक कान सभ कटा देलक 

सजा फेर एक नारि हेबाकें 
सहल ओ धिया हिया कना देलक  

चलल खेल धरि लहास पर सेहो 
सगर राजनीति सभ चला देलक

जँ राजीव आब बानि नै बदलल  
बुझब व्यर्थ प्राण ई धिया देलक 

१२२१ २१२ १२२२ 
@ राजीव रंजन मिश्र 

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