Wednesday, January 15, 2014

गजल-१७० 

कखनोकँ मोन सहकि जाइ छै
अनढनकँ  लेल सनकि जाइ छै

जे साँझ भोर रहल गुम सदति
सेहो त' लोक चहकि जाइ छै

ई नेह चीज त' थिक एहने
भेटल कि डाँर लचकि जाइ छै

बड जे कठोर करम बानिकेँ
तकरो त' हाथ झड़कि जाइ छै

राजीव ई त' बुझल बात थिक
चानन पसरि क' गमकि जाइ छै 

221 2112 212
@ राजीव रंजन मिश्र 

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