Thursday, January 16, 2014

गजल-१७१ 

दिन कहुना काटि लेलहुँ राति भारी भ' गेल
कछ्मच्छी फेर मोनक आइ हाबी भ' गेल 

कोनो चीजक कखन ऐ ठाम भेटल ग' दाम
अनढनकेँ सोझ लोकक हाथ कारी भ' गेल

ललसा छल संग भेटित चारि टा लोककेर
धरि सभ क्यौ पेट खातिर कामकाजी भ' गेल 

ककरा के हाथ जोड़त आ कि आशीष देत
रहि अपने शानमे सभ खानदानी भ' गेल 

अजगुत राजीव ऐ ठा रीत सभटा जगतकँ
बड़ बजने भोथ लोकक वाहवाही भ' गेल 

२२२ २१२२ २१२२ १२१ 
@ राजीव रंजन मिश्र 

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