Sunday, October 27, 2013


गजल-१३१ 

चहुँ कात एक्कहि रंग देखलहुँ
नै लोक लोकक संग देखलहुँ


चाहे  धनीकक बा गरीबक हो
सुख स्वप्न सभकेँ भंग देखलहुँ


अपने अपनमे लऱि झगऱि मिटल
छूछ्छोक खातिर जंग देखलहुँ


छल राति मजलिसमे ढरल मतल
भोरे तकर नब ढंग देखलहुँ


राजीव सेहन्ते लला रहल
धरि मोन सभकेँ तंग देखलहुँ

221 2221 212
@ राजीव रंजन मिश्र 

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