Tuesday, October 1, 2013

गजल-११२  

ककरा बुझल छलए जे बात की भेलए 
आँखिक भरब त छलकि सभ बात कहि देतए 

रातुक त' बात बिसरि सभ लगलए काजमे 
ऐ दाव पेंचसँ धरि उद्धार नै हेतए  

फूलक महँक त' रहल काँटक सदति संग टा 
साँपोकँ संग रहब धरि काज नै एलए 

सुधि बुधिसँ कोन बुझल के गप्प नाइन्ह टा 
नेहक मिठास सुखा सभ घाव नित मेटए 

राजीव मति जँ चलल आ सभटा रहित भेटिले 
मनुखक ठिकान कथी पुनि स्वर्ग के टेरए  

२२१२ ११२२ २१२ २१२ 

@ राजीव रंजन मिश्र 
 

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