Friday, May 31, 2013


गजल-६६ 

घुरि ताकि जौँ देखबत' तरि जैत ई जगती
गहि हाथ जौँ पकरब हहरि जैत ई जगती 

ई आँखि मे हिरनीक सन डूबि जे भाँसत 
दिन राति ओ बिसरत बिसरि जैत ई जगती

दू पाँति ई ठोढकत' जनि गीत आ कविता
हँसि गाबि जौँ थिरकबत' गरि जैत ई जगती 

मधु मास छै मिठगरत' अहि रूप के चलते
सभ हारि जौं भेटत नमरि जैत ई जगती 

कहि गेल जे मोनकत' बकलेल ने बूझब 
लखि रूप ई नेहकत' ढरि जैत ई जगती 
221 2221 221 222
@ राजीव रंजन मिश्र 

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